भूल गया हूँ...

इन तेज़ चलती गाड़ियों के बीच ,
दिखे सड़क के उस पार कि गलियां

भूल गया हूँ , इन अंधेरी गलियों में,
आँखों पर पट्टी बाँध आँख-मिचौनी खेलना।

अब आम बहुत मीठे मिले हैं,
पर भूल गया हूँ, उस आम के पेड़ पर चढ़,
खट्टे, अध-पके आमों को तोडना।

अब ज़िन्दगी चले हैं सीधी सड़कों पर,
भूल गया हूँ,उन छोटी-छोटी पग-डंडियों पर खो जाना।

अब जब भी पग नीचे जाएँ, चप्पल ही संभाले हैं,
भूल गया हूँ, नंगे पैर उस ठंडी माती पर चलना।

अब दूर-दूर तक सब दिखे हैं,
पर भूल गया हूँ, उस करीबी धुंधली परछाई को देखना ,
जो शायद मेरी ही थी ।

Comments

Unknown said…
एक ही बात कहूँगी इस कविता के बारें में, चाहें यह अधूरी है पर फिर इसका तात्पर्य अपने आप समझ आता है. . . मुझे कविता का टोपिक पसंद आया. ऐसे ही लिखते रहना. भगवान् सदा आपको खुश रखें!
ajay singh said…
bilkul theek sachchai jhalakti hai
Beautifully written. Loved the instances. :)

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