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Showing posts from March, 2013

किस रंग में बेरंग हो?

न सोच न समझ , न सच न झलक , न मंज़िल न कोई रास्ता , क्यूँ बेरंग से बढ़ रहे , किस रंग में बेरंग हो तुम ? किस रंग में ? न माता न पिता , बस हैं कुछ दोस्त साथी , जो आज हैं , पर देखा न उनके संग कल , वो जाने हैं आज क्या हुआ , पर न भनक उन्हे बीते हुए कल की , क्यूँ बेरंग से बढ़ रहे ? किस रंग में बेरंग हो ? किस रंग में ? आज का दिन गुलाल का था , न था लहू का , न था हिंसा का , न था मदिरा का , न था गुमने का , कहाँ से आए ये रंग ज़िंदगी में ? किस रंग में बेरंग हो तुम ? किस रंग में ? किस रंग में ? किस रंग में ... © के॰ हरीश सिंह 2013

Moving on!

Moving on! Vikrant was a new employee of the Central  Public Works Department, which the world knew as the famous CPWD. He had finished his engineering from a prestigious engineering college and his family was quite happy at the fact that he had got a job in CPWD, an organization which was as old and as trustworthy  as ever. It had been three months and the feeling of this new job had not yet settled in. Vikrant had just moved to Delhi and got a house here.  It was a nice life here in Delhi, compared to his hometown in UP. The best part for him was his family was no where around. Though they would never be after him to come and sleep on time, but it is just this responsibility which Vikrant had towards them. Now, all of a sudden, he did not have any and wasn't he happy about it! Somewhere in central Delhi, Vikrant's team was doing a field survey of the number of slums in the area. They were going from one slum to another and checking and collecting documents from the s

Translation by Sambit Kr. Pradhan :)

This is the awesome translation which our very own Sambit Kumar Pradhan did. Love it: वो माँ ... वो माँ, जिसने अपना बेटा मुल्क से मामूली मुद्दे पर लड़ते हुए खो दिया। खिड़की पे बैठे वो याद करती है अपने बेटे को, वो बच्चा, थका, पसीने में तर साँझ के खुशगवार खेलों की मुस्कान लिए भागा आता था रोज़ उसके पास। खिड़की पे बैठे वो याद करती है अपने बेटे को। वो मुल्क क्या है जिसके लिए वो मरा? क्या वही राष्ट्र-गान है जो वो स्कूल में गाता था, और उसके रौंगटे खड़े हो जाया करते थे? क्या वही मुल्क है ये, जिसके लिए वो मरा? वो मुल्क क्या है जिसके लिए वो मरा? अनजानों को मारना सीखा था उसने, सिर्फ इसलिए कि वो उसके मुल्क में घुसना चाहते थे। वो इस मुल्क के माइने कैसे बताए? वो कैसे इस मुल्क को अपना और उस अनजान को अपना दुशमन बताए? क्या वो उसे मारता अगर वो उसे सड़क किनारे किसी चाय वाले के यहाँ मिलता? कैसे मारता वो उसे, क्या उस अनजान की माँ नहीं होगी? और वो कौन सा मुल्क था, जिसके लिए वो मरा? उसे कहा गया लड़ने को, अनजान अनछुए इलाकों के लिए- हालत खुदकी उतनी ही बुरी जैसे दुश्मन की। वो फिर भी लड़ा उन से, स

गलत मोड

जाना था जंगपुरा , पर गलत मोड ही था , जो मुझे निज़ामुद्दीन के किसी कोने में छोड़ गयी , वो बस! थी वो हरी बस , पर सपने रंग बिरंगे लिए , मैं चल पड़ा जंगपुरा की ओर। इतनी ठंडी हवा , की जेबों से हाथ ही न निकले , सिकुड़कर चलता रहा , वो गलत मोड ही था , जो मैं चल रहा था। गाडियाँ इतनी तेज़ , की पालक झपकते ही सब गायब , देखा मैंने की मैं ही हूँ , जो चल रहा था। गलत मोड जो ले लिया था। पर चलते चलते मैंने वो सब देखा , जो मैं कभी गाड़ी में सूंघ भी न पाता। मेरी बंद कविताओं के वो सुलझते खुलासे , मेरी कहानियों के वो अंजाने अंत , मेरे उन बेसुरे गानों के वो सुंदर सुर , सब साफ दिखने लगा मुझे। वो सब जो मैं कभी गाड़ी से सूंघ भी न पाता। मैं जो चला तो मुझे आया ये समझ , की सही ही कहा था उस महान कवि ने , की मोड़ कभी गलत नहीं होते , बस इंसान गलत होते हैं। बस इंसान गलत होते हैं। बस इंसान गलत होते हैं।