कौन गहरा ज़्यादा? वो चमचमाता समुंदर, अंदर जिसके, बसते कई अनजाने से शहर? या वो तेज़ बहती नदी, गुणगान में जिसके जलते वो अनगिनत दिये, और गाये जाते वो असंख्य गान? कौन गहरा ज़्यादा? क्या वो खाई गहरी, भीतर जो छिपाय बैठी, पर्वत के सुंदर राज़? या वो ज्वालामुखी, जो दबाय बैठा है शतकों की आग, मन में अपने? कौन गहरा ज़्यादा? क्या ये आसमां ज़्यादा गहरा, जिसमे समा जाता, वो शीतल चंद्रमा उस खौलते सूरज संग? और वो तारे मानो सपने हो... टिमटिमाते, चमकते, छोटे...पर अनगिनत, सपने ही हो। या गहरा वो कुआँ, जो नानी के घर में, पीढ़ियों से शांत बैठा है, कई कहानियाँ छिपाय, राजाओं की, कहानियाँ गहराई की? कौन गहरा ज़्यादा? गहरी तो है उड़ान, उस कौवे की, जो न देखती कोई मुल्क, न कोई मजहब, देखती तो बस वो भूख, उड़ान भूख की। या शायद गहरी है मेरी नींद, अनजाने ख्वाबों में जो ले जाती किसी और लोक में, बंद आँखों से मुझे इतना कुछ दिखलाती, खुली आँखों से जो मैं सोच भी न पता। कौन गहरा ज़्यादा? गहरी है कहानियाँ, जिनके अंत दे जाते सीख? या गहरा है हर दिन, जिसके अंत में है, अगले दिन के शु...