शुरू सही ही की थी कविता, सही शब्द, सही विराम, पर कहीं बीच में, थम सा गया हूँ। पता नहीं क्यूँ? विचार बहुत हैं, असीमित। ख्याल बहुत हैं, असंख्य। पंक्तियाँ भी बहुत हैं, अनगिनत। अब कैसे लगाऊँ? क्या लगाऊँ? कहाँ लगाऊँ? बस बीच में, थम सा गया हूँ। पता नहीं क्यूँ? गीत भी लिखना शुरू ही किया था, सुबह की गर्मा-गर्म कॉफी के साथ, सही अल्फ़ाज़ बने, और बढ़ा गाना मेरा, पर अब न समझूँ, की कोरस क्या होगा, पता नहीं कहीं बीच में, थम सा गया हूँ। पता नहीं क्यूँ? न मैं थमता, और न ही सोचता, ख़ुश हूँ की मैंने शुरुआत तो की, थमा हूँ, पर रुका नहीं, विकल्प अब भी जारी है। थम ज़रूर गया हूँ, पर कविता, अब भी जारी है। सोच अब भी जारी है। जारी है...